poem008

ले चल मुझको

ले चल मुझको, मातृभूमी की राहें
हे सागर जी तडपाये, तरसाये वो राहें ||
भारत माँ के चरणकमल को धोता
हर बार तुझे देखा था
जाब तुने कहा, दूर देस जाते हैं
विश्व का ज्ञान पाते हैं
माँ के मन में बिरह की शंका छायी
तब तुने आंस बंधाई
ज्ञानी हुँ मी स्वयं साथ जाउँगा ||
विश्वास किया इन वचनोंपर
जग अनुभव के उन सपनोंपर
सर् रखकर माँ के चरणोंपर
“ लौटुंगा माँ “ कहकर छोड के आए
हे सागर जी तडपाये, तरसाये वो राहें ||
पंछी हो कैद या हिरन जाल में फँसा हो
हो ऐसी स्थिती तब क्या हो
जाने कैसे ये बिरह सहुँगा आगे
दुनिया अंधियारी लागे
में चू चुनकर फुल ज्ञान के लाऊँ
माँ के चरणोंपे सजाऊँ
जो भारत के उद्धार काम न आए
वो विद्या बोझ बढाएँ
वो आम्रवृक्ष की शीतलता
कालियों से सजी वो पुष्पलता
याद आएँ गुलाब की मोहकता
क्या मुझसे वो गुलशन हूए पराये
हे सागर जी तडपाये, तरसाये वो राहें ||
जगमता है ये आसमान, पर प्यारा
वो हिंदुभूमी का तारा
है लाख यहाँ उँचे महाल पराये
माँ की कुटीयाँ हि लुभाये
उसके आगे तख्त ताज ये क्या है

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